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मन का परिंदा

>> Saturday, September 20, 2008

बहुत दिनों तक मेरे मन का परिंदा
सोने के पिंजरे में कैद रहा
आज अचानक ही उसने
अपने पंख फड़फड़ाए
और पिंजरे से आजाद हो गया।

पंखों में हवा भर
एक लम्बी उड़ान ली
और ऐसा लगा कि
जैसे क्षितिज छू आना चाहता है ।
इस परिंदे को मैंने जैसे
अपने आप में कैद कर रखा था
न मैंने कभी उसकी ख्वाहिशें पूछीं
और न ही कभी उसे कुछ ख़ुद बताने दिया
बस वक्त - बेवक्त उसे दाना - पानी देती रही
और सोचती रही कि यही ज़िन्दगी है ।

आज मेरा मन
जैसे नीले गगन में
बादलों के साथ
लुका - छिपी खेलना चाहता है।

मुझे डर है कि कहीं फिर
इस परिंदे को पकड़
कोई इसे पिंजरे में डाल देगा
जो इसे खुला आसमान मिला था
फिर से छिन जायेगा
और ये परिंदा
अपनी निर्निमेष आंखों से
पिंजरे के बाहर झांकता रह जायेगा .

1 comments:

taanya 9/22/2008 4:52 PM  

मुझे डर है कि कहीं फिर
इस परिंदे को पकड़
कोई इसे पिंजरे में डाल देगा
जो इसे खुला आसमान मिला था
फिर से छिन जायेगा
और ये परिंदा
अपनी निर्निमेष आंखों से
पिंजरे के बाहर झांकता रह जायेगा

- sangeeta ji is parinde ko pinjre aur samey k dar k bhaav se jitna door rakh sakte hai rakhiye..aise jaise insaan apni maut ko bhool kar is duniya me sb acchhe bure kaam karta hai..u hi is parinde ko is duniya k khule aakash me vichran karne dijiye..isi me hi zindgi ko jeene ka maza hai..varna kehte hai na..LALLU YE BHI KOI ZIDGI HAI...???

soooooooooooo bbbbbbb relax without fear...ha.ha.ha...

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