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सीमायें

>> Wednesday, November 26, 2008



रिश्तों की गांठें खोल दो
और
आजाद हो जाओ सारे रिश्तों से
फिर देखो
ज़िन्दगी कितनी
सुकून भरी हो जाती है
एक तरफ़
न तुम किसी के होंगे
और न कोई तुम्हारा
दूसरी तरफ़
तुम सबके होंगे
और सारा जग तुम्हारा
फिर तुम उम्मीदों को
सीमाओं में नही बाँधोगे
और दूसरे की कमियां गिनाने की
सीमा नहीं लांघोगे .

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दस्तक

>> Tuesday, November 25, 2008


कड़वाहटें मन में जो इतनी हैं

कि गुलों की खुशबू भी नही सुहाती है

कैसे इन काँटों को निकालूँ मैं

कि हर अंगुली मेरी लहुलुहान हुई जाती है

एहसास का ही जज्बा न हो जहाँ

वहां उम्मीद ही क्यों लगायी जाती है

उम्मीद ही नाराजगी का रूप धर कर

दिल के दरवाजों को बंद कर जाती है।

इन बंद दरवाजों को खोलने की कोशिशें

सब यूँ ही व्यर्थ चली जाती हैं

सारी उम्मीदें और चाहतें जैसे

एक खोल में सिमट कर रह जाती हैं ।

फिर चाहे तुम दस्तक देते रहो बार - बार

दिल के कान बहरे ही रह जाते हैं

अपनापन कहीं बीच में रहता नही

अपने लिए ही सब जीते चले जाते हैं.

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अकेलापन

>> Thursday, November 13, 2008


जब मैं इस संसार में न रहूँ तब मेरे हमसफ़र की शायद ऐसी सोच हो...............
जब ज़िन्दगी थकने लगती है
और मन टूटने लगता है
तब मुझे तुम्हारी नजदीकी
बहुत याद आती है ।
बसीं थीं तुम मेरी साँसों में
पर उन साँसों को मैंने
शायद कभी पहचाना नही
तुम्हारे अपनेपन को भी
मैंने कभी अपना माना नही
आज नितांत एकांत में
जब तेरी याद मुझे आती है
मैं ढूंढता रह जाता हूँ
तू मुझे बहुत सताती है ।
उम्र के इस पड़ाव पर
बहुत मुश्किल होता है
अकेले वक्त बिताना
हर खुशी हो चाहे घर में
पर नही मिलता मेरे मन को
कोई भी ठिकाना ।
आज मन ढूंढता है तेरा सानिध्य
पर नही पा सकता ये जानता हूँ
बीते पलों में भी चाहूँ कुछ ढूंढ़ना
पर नही मिलेगा ये मानता हूँ.

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नई अनुभूति


ख़्वाबों में अक्सर
देखा है मैंने ख़ुद को
किसी ऊँची
पहाडी की चोटी पर खड़ा
जब भी झांकती हूँ
नीचे की ओर
तो डर के साथ
एक सिहरन भी होती है
डर-
शायद गिर जाने का
और सिहरन-
शायद एक नई अनुभूति की ।

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ख्वाहिश मौत की

>> Wednesday, November 12, 2008

यूँ तो हर आँख
यहाँ बहुत रोती है
हर बात हद से गुज़र जाए
तो बुरी होती है
ज़िन्दगी को हर पल
मापना ज़रूरी है
वरना ये ज़िन्दगी
हर भार से भारी होती है।
हमने मार डाला है आज
अपने हाथों से सारे ज़ज्बातों को
क्यों कि ज़ज्बातों से भारी
फ़र्ज़ की ज़िम्मेदारी होती है
यूँ ही फ़र्ज़ निबाहते हुए
रीत जायेगी ये ज़िन्दगी
जिंदा रहने के लिए
ये साँस भी ज़रूरी होती है
साँसों का ये दौर
यूँ ही चले भी तो क्या है
मौत की ख्वाहिश होते हुए भी
जिंदा रहना भी एक मजबूरी होती है.

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एहसास

>> Wednesday, November 5, 2008

वक्त बहुत बेरहम हो चला है
ख्वाहिशें भी पूरी होती नही हैं
दर्द को भी बढ़ना है यूँ ही
खुशी भी कोई मिलती नही है।
चाहतें भी बिखर सी गयीं हैं
समेटने के लिए दामन कहाँ से लाऊँ?
सूनापन है इन आंखों में छाया
कोई रोशनी भी मैं कहाँ से पाऊँ ?
मेरी तन्हाइयों की बात न छेडो तुम
यादें तक तनहा हो चली हैं
इन अंधेरों में किसको पुकारूं में
परछाई भी मेरा साथ छोड़ चली है ।
हाथ बढाती हूँ पकड़ने को दामन
तो कहीं कुछ खो सा जाता है
सहारा भी चाहूँ किसी का तो
खाली हाथ लौट कर आ जाता है।
सूना -सूना सा आंखों का काजल
कह रहा है अपनी ही कहानी सी
सुनने की भी ताब नही है
लगती है सब जानी - पहचानी सी ।
आँखें बंद कर आज देखती हूँ
अपना साया भी साथ नही है
सोचो तो कैसा मुकद्दर है
दर्द का भी कोई एहसास नही है .

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हमारी वाणी

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