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चपला चंचला

>> Sunday, October 25, 2009


एक दिन अचानक

भीड़ के बीच

बस स्टाप पर

मेरी नज़र पड़ गयी थी

तुम पर

मुझे लगा कि

बहुत देर से

टकटकी लगा कर

देख रहे थे तुम ।

तभी बस आई

और भीड़ के साथ

मैं भी सवार हो गयी थी

बस में ।

पर तुम

किंकर्तव्यमूढ़ से

खड़े रह गए थे ।

और ये सिलसिला

रोज़ का ही

हो गया था शुरू।


मैं

अपनी सहेलियों के साथ

हंसती थी , खिलखिलाती थी

मद मस्त हुई जाती थी ।

और कुछ जान बुझ कर भी

अदा दिखाती थी ।

और एक नज़र भर

देख कर

चली जाती थी।

तुम रह जाते थे

खड़े वहीँ के वहीँ।


और एक दिन

तुम

मेरे करीब से गुज़रे

और धीरे से

कहा कान में

चपला चंचला ।

सुनते ही जैसे मैं

जड़ हो गयी थी ।


आज भी वही

बस स्टाप है

रोज़ मेरी नज़रें

तुम्हें खोजती हैं

और निराश हो

लौट आती हैं ।

अब मेरे साथ

न सहेलियां हैं

न हंसी है

न खिलखिलाहट है

न मस्ती है ।

बस

है तो

बस एक ख्वाहिश

कि

एक बार फिर से

सुन सकूँ तुमसे

चपला चंचला

6 comments:

दिगम्बर नासवा 10/25/2009 1:51 PM  

khoobsoorat lamhe को simeta है आपने इस rachna में .... bahoot khoob ......

अजय कुमार 10/25/2009 6:49 PM  

दो प्यार भरे शब्द सुनने को व्याकुल मन पर अच्छी रचना

अनामिका की सदायें ...... 10/25/2009 8:30 PM  

इन्सान के न होने पर उसकी अनुपस्थिति खटकती है . जब पास हो तो उसे भाव नहीं दिए जाते..यही मानव मन की फितरत है...इस छोटे से एहसास को कितनी सुन्दरता से ढाला है आपने इसके लिए बधाई.

रश्मि प्रभा... 10/25/2009 10:59 PM  

होती है ऐसी ख्वाहिशें........एक 16 वर्षीय बाला दिल में और वह सुनना चाहती है कि
वही हिरनी है,वही राधा है........
वक़्त सबकुछ बदल देता है,पर यह इंतज़ार नहीं

shikha varshney 10/27/2009 8:41 PM  

आपका ये रंग मुझे सबसे ज्यादा पसंद है...मजा आ गया पड़कर

Apanatva 11/02/2009 2:45 PM  

bade hee pyar se lamhesanjo rakhe aapane .badee hee sunder rachana .
badhai

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