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स्वयं सिद्धा बन जाओ

>> Monday, May 10, 2010







नारी - 


तुम कब खुद को जानोगी 


कब खुद को पहचानोगी ? 



कुंठाओं से ग्रसित हमेशा 


खुद को शोषित करती हो 


अपने ही हाथों से खुद की  


गरिमा भंगित करती हो 



पुरुषों को ही लांछित कर 


खुद को ही भरमाती हो 


पर मन के विषधर को 


स्वयं  ही दूध पिलाती हो 



घर - घर में नारी ही 


नारी से  द्वेष भाव रखती है 


अपनी वर्चस्वता रखने को 


हर संभव प्रयास करती है 



नारी ही नारी की शोषक 


कितना विद्रूप लगता है ? 


पर ये खेल तो ना जाने 


कितनी सदियों से चलता है 



जिस दिन तुम नारी बन 


नारी का सम्मान करोगी 


उसके प्रताड़ित होने पर 


उसके  लिए दीवार बनोगी 



उस दिन ये समाज तुम्हारी 


महा शक्ति को पहचानेगा 


दीन - हीन कहलाने वाली को 


अपने सिर  माथे पर रखेगा .



दूसरे को कुछ कहने से पहले 


स्वयं में दृढ़ता  लाओ 


नारी का आस्तित्व बचाने को 

40 comments:

अनामिका की सदायें ...... 5/10/2010 7:05 PM  

वाह मजा आ गया आज तो और सच बताऊ एक उत्साह जागृत हो गया है और दिल कर रहा है की बस झंडा लेकर निकल पडू...नारी से नारी की कटुता मिटाने के लिए.
बहुत ही अच्छा सन्देश देती रचना. बधाई.

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" 5/10/2010 7:06 PM  

बहुत सुन्दर और एकदम सटीक ... कई दिनों से जो नारी-जागरण पर विभिन्न ब्लॉग में पोस्ट आ रहे हैं ... उस पर मैंने यही टिपण्णी की है ... कि यदि नारी चाहती है कि उसका दशा सुधरे और समाज में परिवर्तन आये, तो सबसे पहले अपनी मानसिकता बदलनी होगी ... नारी नारी के सपक्ष में बोलने लगेगी, तो स्थिति सुधरते देर नहीं लगेगी ... पुरुष शाषित समाज भी बदल जायेगा !

Apanatva 5/10/2010 7:06 PM  

sangeetajee ye huee na baat.........
Aap itena sunder likhtee hai sakaratmak soch doosaro ko bhee sahee disha detee hai.............prerana detee hai shakti detee hai..............Aabhar

Lajawab prastuti......
maine bhee aaoka anurodh mana hai agalee 2 3 post usee vishay ko lekar rahegee........

संजय कुमार चौरसिया 5/10/2010 7:10 PM  

bahut sunder aur ekdam sateek

http://sanjaykuamr.blogspot.com/

संजय भास्‍कर 5/10/2010 7:11 PM  

बहुत ही अच्छा सन्देश देती रचना. बधाई.

Anonymous,  5/10/2010 7:29 PM  

"जिस दिन तुम नारी बन
नारी का सम्मान करोगी
उसके प्रताड़ित होने पर
उसके लिए दीवार बनोगी
उस दिन ये समाज तुम्हारी
महा शक्ति को पहचानेगा"
शाश्वत सत्य और बड़ी बात

दिगम्बर नासवा 5/10/2010 7:44 PM  

आपने नारी को भी आज दर्पण दिखाया है ... बहुत अच्छी रचना है ...

shikha varshney 5/10/2010 7:50 PM  

बहुत अच्छी कविता है दी! तस्वीर का दूसरा रुख दिखा दिया आपने ...
सच कहा जब तक हम अपनी इज्जत करना नहीं सीखेंगे कुछ नहीं बदलेगा.

kshama 5/10/2010 7:56 PM  

दूसरे को कुछ कहने से पहले


स्वयं में दृढ़ता लाओ


नारी का आस्तित्व बचाने को


स्वयं सिद्धा बन जाओ.....
Sach bahut achha laga padhke...ladki ke bachpan me uske mata pita gar uske palan shikshan pe thoda dhyan karen to chitr badalne lagega..
Bahut khoob likhti hain aap..josh se bharpoor..Aapka lekhan padh,aapse milne ka dil karta hai!

M VERMA 5/10/2010 7:58 PM  

सांझ से पहले ढलना छोड़ो
तुम खुद को छलना छोड़ो

प्रकाश गोविंद 5/10/2010 8:02 PM  

बहुत सुन्दर काव्य रचना
पढ़कर बहुत अच्छा लगा !
-
-
नारी सशक्तिकरण की बात करने वालों को अवश्य पढना चाहिए !

आभार

दिलीप 5/10/2010 8:03 PM  

waah bahut sundar...lajawaab naari kahi pooji jaati thi aaj upbhog ki vastu ban gayi hai...use kuch karna hi padega...

रश्मि प्रभा... 5/10/2010 8:23 PM  

क्या बात कही है....नारी ही नारी से द्वेष भाव रखती है

एक बेहद साधारण पाठक 5/10/2010 9:06 PM  

ये कविता सच मे हर दृष्टिकोण से सही है ... अदभुद है , मै इसके हर शब्द पर सहमत हूँ .
हर क्षेत्र मे अगर ५ नारियाँ भी मिलकर काम करें तो उस क्षेत्र को और इसी तरह पूरे भारत वर्ष को नारी की महिमा का एहसास फिर से हो जाएगा .. बस एक बार नारियाँ संगठित हो जाए तो सारी समस्या ही समाप्त हो जाएगी

इस रचना के लिए मन से आपका धन्यवाद दे रहा हूँ :)

एक बेहद साधारण पाठक 5/10/2010 9:09 PM  

ब्लोगवानी पर पसंद का एक चटका (क्लिक) भी लगा दिया है

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 5/10/2010 9:23 PM  

रचना करती, पाठ-पढ़ाती,
आदि-शक्ति ही नारी है।
फिर क्यों अबला बनी हुई हो,
क्या ऐसी लाचारी है।।
प्रश्न-चिह्न हैं बहुत,
इन्हें अब शीघ्र हटाना होगा।
खोये हुए निज अस्तित्वों को,
भूतल पर लाना होगा।।

एक बेहद साधारण पाठक 5/10/2010 9:31 PM  

@ डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक जी,
बहुत सुंदर लिखा है आपने .....

रचना करती, पाठ-पढ़ाती,
आदि-शक्ति ही नारी है।
फिर क्यों अबला बनी हुई हो.....

लगता है, इस ब्लॉग पर ... नारी विकास की विचार धारा को एक नयी और सही दिशा मिलेगी ....

शेफाली पाण्डे 5/10/2010 9:48 PM  

bilkul sach likha hai aapne...badhai

रोहित 5/10/2010 9:51 PM  

bahut accha sandesh diya hai aapne,maa'm!
jis roz naari,naari ke hit liye uth khari hogi us roz uski sthiti wa uske samajik star me badlaav ho jayega.

Taru 5/10/2010 10:42 PM  

bahuuut kamaal ki rachna...sabse achi baat samaaj se nahin balki mahilaaon se appeal ki gayi hai...........unke ndar jagrukta ki aawaz uthani chaahi gayi hai......waah Mumma mazaa aagaya..............ek dum josh se bhar gayi rachna.........:D

khoob saari badhaayiyaan........yatharthwaadi sateek lekhan k liye

मनोज कुमार 5/10/2010 11:03 PM  

सही सोच, सार्थक कविता।

rashmi ravija 5/10/2010 11:58 PM  

बहुत ही सुन्दर कविता ...जबतक नारी ही नारी को पूर्णतया नहीं समझेगी..उसके दुखों में भागिदार नहीं बनेगी...नारी का उत्थान संभव नहीं...पर अब तस्वीर थोड़ी बदल रही है...

सु-मन (Suman Kapoor) 5/11/2010 12:01 AM  

बहुत अच्छा सन्देश ।सच में नारी ही नारी से दुश्मन बन जाती है ।घर में ही नहीं हर क्षेत्र में नारी ही नारी की बाधक बनती है जाने क्यों ???????

रावेंद्रकुमार रवि 5/11/2010 12:12 AM  

निष्पक्षता इस रचना की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है!
--
मुझको सबसे अच्छा लगता : अपनी माँ का मुखड़ा!

kunwarji's 5/11/2010 11:39 AM  

iski jarurat thi naari jagat ko!
ek bahut hi sundar prastuti!

kunwar ji,

Razi Shahab 5/11/2010 1:50 PM  

behtareen rachna...achchi soch...khoobsurat andaaz-e-byaan

vandana gupta 5/11/2010 2:18 PM  

aaj ke samaaj ko nari ke isi roop ki jaroorat hai........phir kisi ka moonh dekhne ki jaroorat nahi rahegi nari ko.........vaise isi vishay par maine bhi ek rachna likhi thi.bahut badhiya sandesh deti rachna.

अरुणेश मिश्र 5/11/2010 3:30 PM  

सामयिक उद्बोधन के साथ एक जीवन्त रचना ।

राजभाषा हिंदी 5/11/2010 3:44 PM  

बहुत अच्छी कविता। बहुत अच्छे विचार।

Asha Joglekar 5/12/2010 9:07 AM  

"जिस दिन तुम नारी बन
नारी का सम्मान करोगी
उसके प्रताड़ित होने पर
उसके लिए दीवार बनोगी
उस दिन ये समाज तुम्हारी
महा शक्ति को पहचानेगा"
बहुत सटीक और सामयिक भी सत्य तो है ही ।

sandhyagupta 5/12/2010 10:57 AM  

दूसरे को कुछ कहने से पहले
स्वयं में दृढ़ता लाओ
नारी का आस्तित्व बचाने को
स्वयं सिद्धा बन जाओ.....

Prabhavi rachna.badhai.

Anonymous,  5/12/2010 12:19 PM  

bahut khub....
sahi likha hai aapne...
-----------------------------------
mere blog mein is baar...
जाने क्यूँ उदास है मन....
jaroora aayein
regards
http://i555.blogspot.com/

शोभना चौरे 5/12/2010 9:27 PM  

नई चेतना जगाती उत्क्रष्ट रचना |

स्वप्निल तिवारी 5/14/2010 12:06 PM  

sabne itna bol diya ..ab main bolun to kya bolun.. :) ..achhi nazm hai .. :)

Unknown 5/17/2010 8:00 AM  

स्त्री विमर्श की स्वानुभूतिपरक सुन्दर रचनाएं............घर शायद सबसे बङा प्लेटफॉर्म है जहां मानवीय जगत् के समस्त व्यापार घटित होते है आपकी कविताओं में इन व्यापारों की सुन्दर,सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है.............बधाई अपना श्रेष्ठ सृजन अनवरत जारी रखे।

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