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सागर मंथन

>> Monday, April 30, 2012



कटूक्तियाँ ,
मन के भँवर में
घूमती रहती हैं 
गोल गोल 
संवेदनाएं 
तोड़ देती हैं दम
अपने अस्तित्व को 
उसमें घोल ,

भावनाएं 
साहिल पर 
पड़ी रेत सी 
वक़्त के पैरों तले 
कुचल  दी जाती हैं
जो अपने 
क्षत- विक्षत हाल पर 
पछताती हैं ,

तभी ज़िंदगी के 
समंदर से 
कोई तेज़ लहर 
आती है 
जो उनको 
अपने प्रवाह संग 
बहा ले जाती है ,
फिर होती है
कोई नयी शुरुआत 
सुनहरी सी भावनाओं का 
चढ़ता है ताप 
चाँद भी आसमां में 
जैसे मुस्काता   है 
आँखों का सैलाब भी 
ठहर  सा जाता है 
बस यूं ही 
समंदर की लहरें 
आती - जाती हैं 
ज़िंदगी को जीना है 
यही समझाती हैं , 

मैं भी जी रही हूँ 
कर के ये चिंतन 
रोज़ ही करती हूँ 
मैं सागर मंथन । 

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यूं बोली ज़िंदगी

>> Thursday, April 19, 2012


No One!



आ  ज़िंदगी 
चल तुझसे 
कुछ  बात करें 
खुले गगन तले 
दरख्त की छांव में
कहीं 
एकांत की ठाँव में 
चल तुझसे 
कुछ बातें करें 
ज़रा बता तो ज़िंदगी -
तू -
सपनों और ख्वाहिशों को 
फंसा अपने भंवर में 
क्यों तोड़ देती है 
दम उनका 
कभी कभी 
कितनी निरर्थक सी 
लगती है तू ॰

सुन मेरी बात 
ज़िंदगी मुस्काई 
और एक मृदुल  सा हास 
चेहरे पर लायी 
बोली - 
मैं तो सहज हूँ 
सरल हूँ 
किसी के लिए भी 
नहीं मैं गरल हूँ ,
यह तो तुम ही हो 
जो मुझे 
कठिन बना देते हो 
अपनी सोच को 
मुझ पर लाद देते हो 
मैं तो एक 
निर्मल नदी सी हूँ 
जो हर बाधा को पार कर 
पर्वतों से टकरा 
पत्थरों पर फिसल 
बहती जाती है
अपने गंतव्य की ओर 
करती हुई  
कल - कल , छल - छल 
पर तुमको उसमें 
संगीत नहीं 
शोर सुनाई देता है 
तुमको अपना नहीं 
दूसरों का दोष 
दिखाई देता है 
लगाते हो औरों से 
ढेरों उम्मीदें 
पर खुद लोगों को 
नाउम्मीद करते हो 
मन में लोभ और 
घृणा के भाव  भरते हो 
मिलता है जब तक  सुख 
ज़िंदगी को खुशी से 
भोगते हो 
ज़रा सा कष्ट आने पर 
संघर्ष से डर 
मुझको ही कोसते हो 
पर भूल जाते हो कि
मैं हूँ तो  तुम हो 
मैं नहीं तो तुम भी नहीं .... 


Love


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कविताई

>> Wednesday, April 4, 2012



अमावस सी 
स्याह रातों में भी 
मेरा चाँद मुस्कुराता है 
ठुमक ठुमक कर 
जब  वो मेरी 
बाहों में चला आता है ,
स्मित सी रेखा जो 
उसके ओठों पर आती है 
घने अंधेरे में भी 
चाँदनी सी 
बिखरा जाती है ,
बोल नहीं फूटे हैं 
अब तक 
फिर भी 
करता है वो 
ढेरों बात 
हाथ बढ़ा बढ़ा कर वो 
अपनी मनवाता है 
सारी बात 
उसको पा कर 
भूल गयी हूँ 
मैं अपनी सारी तनहाई 
उसके तुतलाते शब्दों में 
ढूंढ रही हूँ  कविताई । 


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हमारी वाणी

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